December 23, 2024

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संघर्ष के दौर में कांग्रेस

केन्द्र और राज्य की सत्ता पर वर्षो तक एक छत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी 2014 के बाद कठिन राजनीतिक संघर्ष के दौर से गुजर रही है। जहां से उसे वापसी का रास्ता दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा है। बावजूद इसके कमजोर नेतृत्व बिखरा हुआ संगठन के बाद भी पार्टी हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का प्रयास करती है। राजनीति में कहा जाता है कि सत्ता तो आते जाती है पर संगठन अपने जगह कायम रहता है। उस संगठन में सुधार की बातें 2014 एवं 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद जरूर की गई, हार की समीक्षा की गई, पर जमीन में कांग्रेस में सुधार के प्रयास दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव तमिलनाडू, केरल, पांडिचेरी, बंगाल, असम में कांग्रेस का प्रदर्शन का आंकलन किया जाये तो फिर उसे यहां नुकसान ही हुआ है, क्योंकि तमिलनाडू में भले ही वह डीएमके के साथ मिलकर सत्ता में आ गई, पर शेष राज्यों में उसे निराशा हाथ लगी। जो पार्टी कभी केन्द्रीय राजनीति का मुख्य केन्द्र बिन्दू थी आज उसे छोटे दलों के सहारे अपने वजूद को बनाये रखने के लिये समझौता करना पड़ रहा है। कांग्रेस की जो कमजोरिया है वह उसके नेतृत्व को मालूम है पर सुधार के ठोस प्रयास नहीं उठाने के कारण पार्टी बिखर गई है। देश में जितने में राजनीतिक दल है उसमें सबसे ज्यादा नेता कांग्रेस के ही पार्टी छोड़कर दूसरे दलों में गये है, इसका अगर एक कारण सत्ता का लालच है तो दूसरा कारण पार्टी नेतृत्व का अपने नेताओं के साथ संवादहीनता है।
कांग्रेस के सामने वर्तमान समय सबसे बड़ी समस्या एक पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष की है। निश्चित रूप से श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने सफलताओं के नये आयम स्थापित किये थे, पर स्वास्थ्य के कारण वह उतना समय केन्द्रीय अध्यक्ष के रूप में उस तरह से नहीं दे पा रही है जिसकी जरूरत है। जब तक पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व मजबूत नहीं होगा, पार्टी को हर मोर्चे पर संघर्ष करना पड़ेगा। अनेक वरिष्ठ नेताओं द्वारा नेतृत्व को लेकर जो सवाल उठाये गये उसको एकदम से गलत कहना ठीक नहीं है बल्कि उनकी बातों को कांग्रेस को रचनात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिये।
ये सही है कि युवा सांसद एवं पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी कांग्रेस के लिये मेहनत तो भरपूर करते है पर परिणाम उस तरह से प्राप्त नहीं होते, जैसी अपेक्षायें होती है। भारत की व्यवहारिक राजनीति की नब्ज को पकड़ने में राहुल अभी भी असफल है। इसका कारण यह है कि उनके सलाहकार मंडली में जो भी लोग है उनके पास व्यवहारिक राजनीतिक सोच का अभाव है। वो जिस तरह से राजनीति करना चाहते है, उसमें शायद उन्हें सफलता नहीं मिलेगी। जनता के मिजाज को भांप कर बोलने में ही सफलता का नया रास्ता खुलेगा। इस बात में कोई दो मत नहीं की राहुल प्रियंका पार्टी को नई दिशा और दशा देने के लिये लगातार जमीनी स्तर पर संघर्ष करते है पर जब तक आपके पास बूथ स्तर तक एक मजबूत संगठन नहीं होगा तब तक आपकी मेहनत व्यर्थ ही जायेगी।
जिस तरह का राजनीतिक परिदृश्य कांग्रेस के भीतर बना हुआ है, उसमें राहुल गांधी को पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में जिम्मेदारी लेना चाहिये या फिर किसी अन्य को इस पद पर पदस्थ करना चाहिये। यही उनके व कांग्रेस हित में सही निर्णय होगा। कांग्रेस को केन्द्रीय व राज्य नेतृत्व के साथ मजबूत समन्वय बनाकर ही राजनीतिक सफलतायें मिल सकती है। जिसका आज गहन अभाव देखने मिलता है। यही कारण है कि अनेक राज्यों में कांग्रेस को बड़ा नुकसान का सामना करना पड़ रहा है। कांग्रेस को भविष्य में खुद को मुकाबले में बनाये रखना है तो अभी से तैयारी में जुट जाना होगा। खामियां की पड़ताल खुले मन से करनी पड़ेगी, कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी विकसित करने के लिये जमीनी स्तर पर जाकर काम करना होगा। अभी पार्टी के पास नाममात्र के कार्यकर्ता है, इसके अतिरिक्त जनता में छबि खराब कर चुके नेताओं का विकल्प सामने रखना पड़ेगा। लोकसभा चुनाव अभी बहुत दूर है और कांग्रेस के पास खोने के लिये बहुत कम बचा है। ऐसे में पार्टी को हर तरह के राजनीतिक प्रयोग करने से परहेज नहीं करना चाहिये। यही उसको एक नई मजबूती प्रदान कर सकते है। यह भी तब संभव है जब पार्टी एक नये राजनीतिक रोड मैप के साथ आगे बढ़े। कुल मिलाकर अब संघर्ष की शुरूआत कांग्रेस को जमीनी स्तर से करनी पड़ेगी। बड़े नेताओं को कार्यकर्ताओं के साथ मोर्चा संभालने जाना पड़ेगा, तभी पार्टी की दिशा बदल सकती है, वरना संगठन के दरकते किले को उम्मीद की मरम्मत से बचा पाना असंभव सा है। पांच राज्यों के चुनाव ने कार्यकर्ताओं को निराश ही किया है। राजनीति में अपनी खोयी हुई जमीन को पुनः हासिल करना है तो संगठन को हर स्तर पर मजबूत करने के लिये ईमानदारी के साथ प्रयास करना होगें। अन्यथा पार्टी तो चल ही रही है। ये सही है कि सोशल मीडिया पर कांग्रेस ने अच्छा काम किया जिसके चलते पहले की अपेक्षा वर्तमान में वह भाजपा के दुष्प्रचार को मात देने में पीछे नहीं रहती। आने वाला समय कांग्रेस के लिये कठिनतम है तो निर्णायक भी है। केन्द्रीय नेतृत्व के मजबूत हुए बिना कांग्रेस कीे सफलता का मार्ग प्रशस्त होना मुश्किल है। चूंकि पार्टी बड़ी है पुरानी है इसलिये निर्णय को लेकर 100 प्रतिशत सहमति कभी नहीं बन पायेगी, कुछ समर्थन करेेगें तो कुछ विरोध पर पार्टी को लिये गये निर्णय पर अडिग रहकर ही आगे बढ़ने की आदत डालना है। वर्तमान में कांग्रेस को अपने राजनीतिक वजूद को बनाये रखने के लिये छोटे दलों का सहारा लेना पड़ रहा है जो चिंतनीय और आत्ममंथन का प्रश्न है।

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