पिछले दिनों जिन 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए उनमें देश के लोगों की नजरें सबसे अधिक बंगाल,असम व केरल राज्यों के चुनाव परिणामों पर टिकी थीं। बंगाल पर इसलिए क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी,गृह मंत्री अमित शाह तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने राज्य में अपनी फतेह पताका फहराना अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। प्रधानमंत्री व गृह मंत्री के किसी भी राज्य में किये गए चुनावी दौरों में सर्वाधिक दौरे बंगाल चुनाव के दौरान व उससे पूर्व ही किये गए। बांग्लादेश यात्रा के दौरान भी बंगाल चुनाव पर निशाना साधा गया। राज्य में ध्रुवीकरण के सभी प्रयास विफल हुए। और जहां मीडिया के साथ जुगलबंदी कर ममता बनर्जी को सत्ता से बेदखल करने का चक्रव्यूह रचा गया था ,वहीँ ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री व गृह मंत्री समेत कई केंद्रीय मंत्रियों व अनेकानेक भाजपाई मुख्यमंत्रियों के सभी प्रचार तंत्र का अकेले मुकाबला कर पहले से भी बड़ी जीत हासिल कर कम से कम यह तो प्रमाणित कर ही दिया कि न तो भाजपा अजेय है न ही इसके द्वारा बनाए जा रहे चुनावी वातावरण से घबराने या प्रभावित होने की जरुरत है। बहरहाल बंगाल में जहां ममता बनर्जी पुनः मुख्यमंत्री हैं वहीँ भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए सुवेन्दु अधिकारी को विधान सभा में विपक्ष का नेता नामित किया है। गोया भाजपा का अपना कोई नेतृत्व बंगाल के राजनैतिक छितिज पर नजर नहीं आता। इसी तरह आसाम में भी भाजपा ने सत्ता में वापसी तो जरूर की परन्तु इस बार उसने सर्बानंद सोनोवाल के बजाए हिमंत बिस्वा सरमा को अपना मुख्य मंत्री बनाया। हिमंत पूर्व कांग्रेसी हैं तथा कांग्रेस के तरुण गोगोई मंत्रिमंडल में वरिष्ठ मंत्री भी रह चुके हैं। गोया यहां भी भाजपा का फतेह ध्वज उठाने वाला व्यक्ति पूर्व कांग्रेसी ही है। और केरल में भाजपा ने बड़ा दांव खेलते हुए मेट्रोमैन के नाम से मशहूर श्रीधरन को केरल की भाजपा का चेहरा बनाने की कोशिश की परन्तु केरल के मतदाताओं की वैचारिक सोच व उनके स्वभाव के अनुरूप भाजपा वहां एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हो सकी।
इसी तरह मध्य प्रदेश में जहां शिवराज सरकार ज्योतिरादित्य सिंधिया के रहम-ो-करम की मोहताज है वहीं बिहार में भाजपा नितीश कुमार के कंधे पर सवार होकर सत्ता सुख भोग रही है। भाजपा का हरियाणा में भी जननायक जनता पार्टी को साथ लेकर ही पुनः सत्ता में आना संभव हो सका जबकि महाराष्ट्र व अकाली दल जैसे संगठनों ने भाजपा से दोस्ती के परिणाम स्वरूप उन्हें होने वाले दूरगामी नुक्सान को भांपते हुए अपने रिश्ते खत्म करने में ही अपनी भलाई समझी। गोया यह केवल मीडिया जनित मंसूबा बंदी की ही ढोल है जो भाजपा को सबसे बड़ी अजेय पार्टी रूप पेश करती रहती है। कोरोना काल में सत्ता की विफलताओं को छोड़ भी दें तब भी दिल्ली, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब जैसे कई राज्यों में भाजपा पराजय का मुंह देखती रही है। मध्य प्रदेश, मणिपुर गोवा जैसे राज्यों ने यह भी साबित किया है कि भाजपा जनमत के बल पर जीत हासिल करने के अलावा दल बदल कराने, विधायकों की खरीद फरोख्त व ईडी व सीबीआई जैसी संस्थाओं के दबाव बनाकर भी विधायकों को अपने पक्ष में करने का हुनर भली भांति जानती है।
अब निकट भविष्य में देश के उस सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। बंगाल में मुंह की खाने के बाद भाजपा उत्तर प्रदेश की चुनावी तैयारियों में अभी से सक्रिय हो गयी है। बंगाल में ममता के विरुद्ध जिस सत्ता विरोधी लहर का लाभ भाजपा उठाना चाह रही थी,उत्तर प्रदेश में भाजपा की योगी सरकारर के सामने भी उससे भी जबरदस्त सत्ता विरोधी लहर के हालात दरपेश हैं। परन्तु भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में सबसे सुखद यह है कि यहां एक तो अभी तक विपक्षी दल अपने अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ते हुए संगठित नहीं हैं। दूसरे यह कि अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं कि इनमें से कौन सा विपक्षी दल वास्तव में भाजपा विरोधी है और कौन भाजपा के प्रति नर्म रुख रखता है। जहाँ तक राज्य की योगी सरकार के विरुद्ध गत एक वर्ष से लगातार मजबूत विपक्षी किरदार अदा करने का प्रश्न है तो सिवाए संगठनात्मक रूप से कमजोर होने के बावजूद कांग्रेस पार्टी विशेषकर प्रियंका गाँधी के सिवा अन्य किसी भी दल या उसके नेता ने प्रदेश स्तर पर सत्ता की नाकामियों के खिलाफ बुलंद आवाज नहीं उठाई। कभी कभार अखिलेश यादव ने कुछ बयान जरूर दिये। परन्तु मायावती व उनकी बहुजन समाज पार्टी की लगातार खामोशी ने तो राजनैतिक विश्लेषकों को यहां तक सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि चुनाव आते आते मायावती का रुख क्या रहेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।
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